शुक्रिया लता जी! हमारे जीवन को खुशगवार, खुशरंग और खुशनसीब बनाने के लिए। वो कितना खुशनुमा पल था जब आप इस धरती पर अवतरित हुईं और उससे भी यादगार वो क्षण था जब आपने गाना शुरू किया। जैसे गंगा हिमालय से निकलती है और उसकी कल कल करता धवल प्रवाह करोड़ो कलुषित,मलिन जनमानस को अपनी दिव्यता से विभूषित कर देता है,कुछ ऐसा ही अनुपम अहसास रहा है आपके स्वर्गीय स्वरों का। ऐसा विरले ही होता है जब कोई प्रतिभा सर्वग्राह्य और सर्वमान्य होती है….
कैसे आपने गालिब की गजल को अपने लर्जिश आवाज से हमारी अनुभूति का हिस्सा बना दिया तो उतनी ही शिद्दत से तुलसी और मीरा की भक्तिमय चौपाइयों को सच्चिदानंद स्वरूपमय बना दिया-“पायोजी मैने राम रतन धन पायो” गाकर
शंकर जयकिशन की भैरवी उतनी आत्मिक नहीं होती गर आपके दिव्य कंठों का संस्पर्श न होता,तो सी रामचंद्र की जयजयवंती भी फीकी ही लगती। मदन मोहन की गजलनुमा ठुमरी कालजयी न होती गर “आपकी नजरों नें प्यार के काबिल न समझा होता” उन अल्फाजों को भी, धुनों को भी और मदन जी के भ्रातृत्व को भी। आप तो एस. डी वर्मन के साथ संपृक्त प्रेममय गीतों को निभाने में उतनी ही पारंगत थीं जितना आरडी वर्मन के फ्यूजन संगीत को…
लता जी! हमे बस एकाध किस्सा याद आता है जब आपसे किसी के साथ रिश्तों में धुंध छाई हो और वो भी रफी साहब जैसे बड़े गायक के साथ लेकिन आपने कितनी मधुरता से सारे गिले शिकवे भुला दिए” आवाज देकर हमें तुम बुलाओ मोहब्बत में इतना न हमको सताओ” गाकर। कितना कहे, कितना बयां करें आपकी दिव्य और अनुशासित आवाज को…
सच तो यह है कि आपकी दिव्य आवाज के बगैर कितनों की भोर, दोपहरी और शाम नही होती। क्योंकि जीवन अगर अहसासों का नाम है तो उन अनुपम अहसासों में आप ने ही रंग भरे हैं। आप यों ही सलामत रहें और अपनी आवाज से जहान-ए-फानी को रौशन करती रहें। क्योंकि आपकी आवाज ही पहचान है…!
प्रस्तुति : धीरेन्द्र कुमार तिवारी, समीक्षक