पाकिस्तान के शायर फैज अहमद फैज की एक नज्म को लेकर ऐसी ही बहस छिड़ी हुई है. इस नज्म के शुरुआती बोल हैं:
‘हम देखेंगे, लाजिम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लौह-ए-अजल में लिखा है…’
इसी नज्म के बीच में कुछ पंक्तियां आती हैं जिन्हें लेकर विवाद छिड़ गया है और कहा जा रहा है कि ये पंक्तियां हिंदू विरोधी हैं. इन पंक्तियों में कहा गया है:
‘जब अर्ज-ए-खुदा के काबे से सब बुत उठवाए जाएंगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का जो गाएब भी है हाजिर भी…’
दरअसल 17 दिसंबर को नए नागरिकता कानून के विरोध में IIT कानपुर में भी विरोध प्रदर्शन हुआ था और इस प्रदर्शन के दौरान कुछ छात्रों ने फैज़ की ये नज़्म गाई. शिकायतकर्ता ने इसकी कुछ पंक्तियों को हिंदू विरोधी बताया है और अब IIT कानपुर ने इस प्रदर्शन से जुड़ी अलग-अलग शिकायतों की जांच करने के लिए एक कमेठी का गठन किया है. जिसको लेकर अब IIT कानपुर ने इस मामले की जांच शुरू कर दी है.
कहा जाता है कि फैज अहमद फैज ने ये नज्म पाकिस्तान के तानाशाह जनरल ज़िया उल हक के विरोध में लिखी थी और तब पाकिस्तानी सरकार ने इस पर पाबंदी लगा दी थी. 1985 में ज़िया उल हक ने पाकिस्तान में औरतों के साड़ी पहनने पर भी रोक लगा दी थी. तब इसके विरोध में पाकिस्तान की मशहूर गज़ल गायिका इकबाल बानों ने साड़ी पहनकर लाहौर के एक स्टेडियम में इसी नज़्म को गाया था.
उस समय स्टेडियम में 50 हज़ार से ज्यादा लोग मौजूद थे. तब कार्यक्रम को बाधित करने के लिए वहां की बिजली काट दी गई थी लेकिन इकबाल बानों नहीं रूकी और ये नज़्म तानाशाही के खिलाफ आंदोलन का तराना बन गई. इकबाल बानो ने ये नज़्म फैज की मृत्यु के 2 साल बाद गाई थी लेकिन ये पाकिस्तान की तानाशाही सरकार के खिलाफ आंदोलन की आवाज बन गई.