फिल्मी परदे पर भी दिख रहा महिलाओं का ‘इम्पाॅवर’, आंगन से आसमान तक बढ़ा ‘दबदबा’
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फिल्मी परदे पर भी दिख रहा महिलाओं का ‘इम्पाॅवर’, आंगन से आसमान तक बढ़ा ‘दबदबा’

Women Centric Films in Bollywood-Filmynism

कहते हैं फिल्में हमारे समाज का आईना है। हमारे आसपास व समाज में होता है, उसी को अपने-अपनेे अंदाज में निर्देशक पर्दे पर दिखाने की कोशिश करते हैं। कभी चौखट की दहलीज को पार नहीं करने वाली महिलाएं आज हर क्षेत्र में पुरुषों से कदमताल मिला रही हैं। हालांकि बराबरी के इस जंग में कई बार महिलाओं को परेशानी का भी सामना करना पड़ता है। हाल के दिनों में बाॅलीवुड में कई ऐसी फिल्में रिलीज हुईं, जिसमें कहीं न कहीं महिलाओं की सच्चाई को बयां करने की कोशिश की गई है। थप्पड़, पंगा हो या फिर गुंजन सक्सेना, दर्शकों को कोई न कोई संदेश दिखा गईं।

वंशिका बिष्ट, दिल्ली।
आज की महिलाएं परिवार और समाज के सभी बंधनों से मुक्त होकर अपने निर्णय खुद ले रही हैं। अब के समय में महिला सशक्तिकरण एक खास विषय बन चुका है, जिस पर कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में चर्चा होते रहती है। हमारे ग्रंथों में नारी के महत्त्व को मानते हुए बताया गया है कि यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवतारू अर्थात जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते है। पर, विडम्बना तो देखिए नारी में इतनी शक्ति होने के बावजूद उसके सशक्तिकरण आवश्यकता है। हालांकि यह एक सुखद संकेत है। लोगों की सोच बदल रही है, फिर भी इस दिशा में और भी प्रयास करने की आवश्यकता है। बाॅलीवुड भी अब महिलाओं का प्रोत्साहन करने के लिए इसमें शामिल हो गया है। बॉलीवुड में हाल के दिनों में कई फिल्में रिलीज हुई हैं, महिला केंद्रीत रही हैं।

पंगा : क्योंकि महिलाएं अब हर फील्ड में लेने लगी हैं ‘पंगा’

पंगा फिल्म मातृत्व और अपने सपनों का पीछा करने की एक कहानी है। वैसे तो बाॅलीवुड की आयरन लेडी इंडस्ट्री में आए दिन पंगे लेती रहती हैं, पर अब इनके चर्चों-सा मशहूर फिल्म पंगा, औरतों को खुद से व लोगों से डटकर पंगा लेने का साहस देती है। कंगना रनौत की यह फिल्म हमारी जिंदगी में औरतों का मूल, महत्व और विशेषता को दर्शाता है। महिलाओं की निजी दिनचर्या पर आधारित यह फिल्म महिला केंद्रित है। समाज के अनुसार, एक औरत को ही अपना सब कुछ छोड़ना होता है, क्योंकि सिर्फ एक मां ही काबिल है जो जिंदगी में अपने सपने छोड़कर किसी और के सपनों को उड़ान देने की हिम्मत रखती है।
इस फिल्म में कंगना एक उम्दा कबड्डी प्लेयर के साथ-साथ टीम की कैप्टन भी होती हैं। लेकिन पुरानी सोच की जंजीरों से बंधी यह वर्किंग वुमन, माँ, बीवी और प्रतिभाशाली महिला को अपना स्पोर्ट्स करियर छोड़ना पड़ता है। अपने पति और 7 साल के बेटे के निरंतर सहयोग के कारण वह 32 की उम्र में कमबैक करती हैं, जो बिलकुल भी आसान नहीं होता।
महिलाओं के लिए प्रेरणा उत्तेजित करने वाली यह फिल्म एक औरत होने का कढा सँघर्ष और त्याग का भाव व्यर्थ करने के साथ-साथ उनके कंधों पर भारी जिम्मेदारियों पर भी जोर डालता है। ग्लेमर का पर्दा न ओढ़े फिल्म पंगा एक साधारण पर अत्यंत महत्तवापूर्णं संदेश देती है कि छोटे कदम व बदलाव अकसर ही बड़ी कामयाबी की ओर ले जाते हैं। अपने सपनों की चिंगारी को हवा यानी पंगा देने का होसला रखें और आने वाले कल में अपनी जीत की खुशी का जश्न मनाएँ।

थप्पड़ : क्योंकि थप्पड़ खाना महिलाओं का एकाधिकार नहीं

यह फिल्म हर महिला को उसके आत्मसम्मान की लड़ाई का डटकर सामना करना सिखाती है, फिर चाहे वह एक थप्पड़ ही क्यों ना हो। ये फिल्म उन मर्दों के गालों तथा रूढ़वादी सोच पर कढ़ा वार करती है। ये थप्पड़ पितृसत्तात्मक समाज पर एक करारा थप्पड़ है, जिसकी आवाज तो नहीं है पर इसकी गूँज दूर-दूर तक पहुंचेगी। हकीकत बयाँ करने वाली यह मूवी किसी सत्या घटना पर आधारित तो नहीं है, लेकिन हर घर की कहानी कहती है।
अमृता (तापसी पन्नू) और विक्रम (पावेल गुलाटी) अपनी शादीशुदा जिंदगी से काफी खुश थे। अमृता एक परफेक्ट पत्नी, बहू, बेटी और बहन थी। वह क्लासिकल डांसर थी और वह इसमें अपना करियर भी बना सकती थी। लेकिन गृहस्थी के लिए वह अपने सपनों को पीछे छोड़ देती है। वह पति की खुशी में ही खुशी ढूंढ़ लेती. एक दिन, उनके घर की पार्टी में एक सीनियर के साथ गरमागरम बहस के बीच विक्रम अमृता को थप्पड़ मार देते हैं। अमृता का स्वाभिमान हिल जाता है और उसके दिल को ठेस पहुँचती है। विक्रम इस मामले को हल करने में असमर्थ रहते हैं और आत्मनिरीक्षण करने की बजाय अपने हाथ को जिम्मेदार ठहरता है जो अमृता को तलाक देने पर मजबूर कर देता है और वही हाथ तलाक भी दाखिल करवाता है।
माना कि कई अनकहे उफनते जज्बातों का त्वरित पटाक्षेप होता है, एक थप्पड़ लेकिन इस गुस्से को मानसिक आवेश का नाम देकर सहना, इस रूढ़वादी सोच को बढ़ावा देना, उचित नहीं । मर्दानगी का ताज पहन कर खुद पे ही इतराते हैं, ष्सब कुछ तो करता हूं तुम्हारे लिए, मियां बीवी में ये सब तो हो जाता है, इतना बड़ा तो कुछ नहीं हुआ ना… लोग क्या सोचेंगे मेरे बारे में कि बीवी क्यों भाग गई? जिस पति की सोच ही यहाँ से होती हैं – लोग क्या कहेंगे, समाज क्या बोलेगा,अपनी बीवी के जज्बातों से ज्यादा दुनियादारी की पड़ी है, वह आदमी दूसरे मौके के काबिल नहीं । ये औरतों पर जोर आजमाकर अपनी पहचान कराना जानते है अगर औरत की इज्जत करना, उसके जज्बातों का ख्याल रखना जरूरी नहीं, तो औरत का खुद के लिए आवाज उठाना गलत है क्या?
क्यों सहे कोई स्त्री ये थप्पड़, जब उसका दर्जा खुदा ने खुद आदमी से बढ़कर बनाया है। जो दूसरे के घर को अपने अरमान तोड़कर सजाती है, क्या परिवार ज्यादा जरूरी है उसके आत्मसम्मान को छोड़कर? कहने को महज एक थप्पड़ है लेकिन कई असीमित असहज संभावनाओं का उद्घाटन होता है ‘बस’ एक थप्पड़, किसी के आत्मसम्मान, स्वाभिमान और नारीत्व की मौजूदगी पर सवाल है ये एक थप्पड़, ये थप्पड़ सिर्फ एक थप्पड़ नहीं है। फिल्म का सबसे खूबसूरत हिस्सा है इसका अंत जब अमृता अहमियतभरा जवाब देते हुए आत्मसम्मान की लड़ाई जीत जाती है और बाकी औरतों के लिए भी एक उदाहरण बनती है अमृता ने स्वाभिमान से कभी समझौता करना नहीं सीखा। थप्पड़ फिल्म यही समझाना और सिखाना चाहती है कि कबतक औरतें आँखें मूंदे आंसुओं को पियेगी, अब अपनी पहचान बनाओ, स्वाभिमान नारी का आभूषण है, इसको श्रृंगार जैसा सजाओ ।

गुंजन सक्सेना द कारगिल गर्ल: महिलाओं को भी सपना देखने और पूरा करने का हक

बेटा नहीं थी वो फिर भी अपने पिता के लिए गर्व और गौरव के सामान थी, नारी थी पर अबला नहीं, बेटी थी पर किसी योद्धा से काम नहीं एक छोटा-सा ख्वाब, प्लेन उड़ाने की इच्छा रखने वाली गुंजन, इंडियन एयरफोर्स की पहली भारतीय महिला फ्लाइट अटेंडेंट रह चुकी हैं। बचपन से ही नन्हे पंखों से आसमान छूने का सपना देखा था जब उन्होंने पहली बार एरोप्लेन का कॉकपिट देखा था पायलट गुंजन सक्सेना पर बनी यह फिल्म, भारत के लिए उनका देशप्रेम और वीरता का उत्सव मनाती है। कारगिल के दौरान गुंजन सक्सेना ने युद्ध क्षेत्र में निडर होकर चीता हेलीकॉप्टर उड़ाया था। उन्होंने हमेशा ही समाज से अलग और हटके सोच रखी है।
24 वर्षीय बेटी गुंजन ने साबित कर दिया कि दृढ़ इच्छाशक्ति और कड़ी मेहनत के दम पर अपनी किस्मत खुद लिखी जा सकती है। उन्होंने समाज की रूढ़िवादी सोच को तोड़कर अपने सपने की शुरुआत की, जो आसान नहीं था, लेकिन महत्त्वपूर्ण अवश्य था। उनकी इस बड़ी-सी जीत का बड़ा-सा हिस्सा उनके पिताजी भी थे, जिन्होंने लड़का और लड़की में कभी कोई फर्क नहीं किया और गुंजन के लक्ष्य को अपना इरादा बना लिया और उन्हें पूरा सपोर्ट किया। गुंजन कहती हैं कि बेटे ही नहीं, बेटियां भी होती गर्व और गौरव की पहचान, चाहिए तो बस जज्बा, साहस, हिम्मत और जुनून। चाहे लाख बंदिशें लगाए जमाना, अपने अधिकारों के लिए लड़ना हर लड़की का बराबरी का हक है, कामयाबी भले दूर ही सही, मगर मंजिल तक पहुंच कर और अपने अस्तित्व का परचम लहरा कर, गुंजन ने अपनी सफलता से दुनिया को चौंका कर, सम्मानता और समानता हासिल की है।

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