‘शाहों की बंदगी में सर भी नहीं झुकाया,तेरे लिए सरापा आदाब हो गए हम।’ (ताबिश देहलवी ने नहीं लिखा होता तो इमरोज़ के लिए लिखी जाती।) मुझे तो उन्हें छूकर देखने की इच्छा थी। मैं जानना चाहती थी इमरोज़ किस मिट्टी से बने हैं? क्या इमरोज़ वाकई में इंसान हैं या इश्क़ में भगवान हो गए? आपलोग तो दिल्ली रहे कभी भेंट नहीं हुई?
एक दफा दूर से देखने का मौका तो मिला। दोस्तों ने कहा इमरोज़ हैं। लेकिन, मिल नहीं सका। जब तक सुन्न दिमाग शांत होता भीड़ छंट चुकी थी। (मेरी एक सीनियर से बातचीत का हिस्सा।)
दिल्ली में रहते हुए इमरोज़ से ‘मिले या नहीं मिले’ का सवाल। साहित्य का सृजन रूदन से होता है। जितनी खामोश आंखें उतनी गहरी रचनाएं। साहित्यकार शब्दशिल्पी होते हैं… और, चित्रकार दूसरों की ज़िंदगी में उम्मीदों का रंग भरने वाले… इमरोज़ भी चित्रकार थे… एक पेंटर… एक आशिक… एक बेहतरीन शख्स… जिसे अपनी मोहब्बत पर भरोसा था… उनकी हाथ में ब्रश के बाल सिर पर सफेद बालों से ज्यादा नहीं थे… इमरोज़ ने बाल को उम्र जाया करके सफेद नहीं किए थे… उनके बाल सुर्ख थे… इश्क़ में तपकर सफेद हुए बालों वाले इमरोज़…
क़तरा-क़तरा घटती अमृता, लम्हा-लम्हा बढ़ते इमरोज़।
सहूलियत के प्यार के कैनवास पर मोहब्बत के रंग भरते इमरोज़… पीठ पर साहिर का नाम लिखते हुए मचलती ऊंगलियां इमरोज़ के दिमाग में इश्क़ की मुकम्मल तस्वीर को बनाने के सपने बुनती रहती। अधूरे इश्क़ में डूबे इमरोज़ की हाथों से इश्क़ का रंगीन चित्र दुनिया के सामने आता तो लोगों को यकीं नहीं होता। इमरोज़ में वो कैफियत और काबिलियत रही कि वो खुद के खालीपन को तस्वीरों पर नहीं दिखाते थे। उनकी तस्वीरों में संदेश हैं… समर्पण का… सच्चे इश्क़ का… त्याग का… सम्मान का और आज़ादी से जीने देने का…
एक घर… दो अलग-अलग कमरे… दो अलग-अलग बिस्तर… दो अलग-अलग हाथ… एक हाथ शब्दों में साहिर को तलाशता… मिलने का पता बताता… अधूरे इश्क़ को भी लिखता…
‘मैं तुझे फिर मिलूंगी, कहां कैसे पता नहीं,
शायद तेरे कल्पनाओं की प्रेरणा बन,
तेरे कैनवास पर उतरुंगी या तेरे कैनवास पर,
एक रहस्यमयी लकीर बन, ख़ामोश तुझे देखती रहूंगी।’
ऊपर के शब्दों में भी कैनवास है… दूसरे कमरे में ब्रश के साथ इमरोज़… उनकी आंखों के सामने भी कैनवास है… खाली दिल के बावजूद कैनवास को भरने का चैलेंज… ब्रश के साथ तस्वीरों में रंग भरते इमरोज़… इमरोज़ के प्रेम में अमृता ने सहूलियत के रंग देखें। सहूलियत के प्रेम में अमृता ने इमरोज़ को ही नहीं अपने शब्दों को भी छला है।
अमृता बेहतरीन माशूका रहीं… महान लेखिका… इमरोज़ रहें सबसे महानतम… तभी तो, एक महिला उन्हें छूकर देखने की तमन्ना रखती हैं।
कहते हैं प्रेम में हारे पुरुष रंगों में भी काला और सफेद चुनते हैं। उनकी किस्मत के इंद्रधनुष के सातों रंग भी सिर्फ सफेद और काले रंग से मिलकर बनता है। अमृता पर बेवजह बहुत कुछ लिख दिया गया। लिखने की वजह भी बताई जा सकती है। लेकिन, इमरोज़ को फर्क़ नहीं पड़ता। एक रिश्ते में तीन चीज़ मायने रखती हैं – भरोसा, प्यार और सम्मान। तीनों चीजों में इमरोज़ अव्वल दर्जे पर रहे। उन्होंने सहूलियत के प्रेम की जगह सिर्फ प्रेम में होने को चुना… प्रेममय हो जाना चुना इमरोज़ ने…
इमरोज़ ने ‘मुझे फिर मिलेगी अमृता’ में बहुत कुछ लिखा है। इमरोज़ ने जिक्र किया है कि ‘कोई भी रिश्ता बांधने से नहीं बंधता।’ सच्चाई जानते हुए भी किसी के साथ घर में मौजूदगी आसान नहीं। दोनों कमरे के बीच एक नहीं दो दीवारें थीं। एक दुनिया ने देखी… दूसरी सिर्फ इमरोज़ ही देख सकते थे। सामने वाले के धड़कते दिल के ठीक पहले खुद के लिए बनाई गई दीवार। और, उस दीवार पर हर वक़्त साहिर की लटकती तस्वीर। बावजूद इमरोज़ बेफिक्र रहे… उनको रंग भरना था… खाली कैनवास पर मोहब्बत का रंग भरते रहे इमरोज़…
बेफिक्र, बेपरवाह पेंटर रंग भरता रहा। खुद के अधूरे इश्क़ की कल्पनाओं में दुनिया के लिए उम्मीदों का रंग… खुद के बदन में बहते काले खून की बूंदों से रंगीन तस्वीर बनाना इमरोज़ के लिए ही संभव है। तमाम विकट परिस्थितियों के बावजूद प्रेम करना… समर्पित रहना… उम्मीद करना कि ‘मुझे फिर मिलेगी अमृता’… जरूर मिलेगी। यह महान नहीं महानतम शख्स की पहचान है। इमरोज़ प्रेम में मात खाए शख्स नहीं थे… वो खुद को हारकर प्रेम को पाने वाले महानतम शख्स थे…
समय से पहले प्रोग्रेसिव सोच के हिमायती होते हुए भी इमरोज़ ने सामने वाले के लिए बदन की जरूरतों की जगह आत्मा के खालीपन को पूरा करने को प्राथमिकता दी। एक छत के नीचे रहते हुए भी ना कभी नाराज़गी, ना विरोध, ना आरोप।
आज के दौर में इमरोज़ के पैरों की धूल भी आशिकों के लिए आब-ए-ज़मज़म से कम नहीं। उन्होंने खुद की आज़ादी चुनी… सामने वाले को भी आज़ाद कर दिया… ‘जाओ अपने हिसाब का प्रेम करो।’
सहूलियत के प्रेम से कोसों दूर खड़े रहे इमरोज़…
अमृता प्रीतम से कुछ इत्तेफाक़ भी हो सकते हैं। इमरोज़ से जरा भी इत्तेफाक़ की गुंज़ाइश की उम्मीद नहीं है। हकीकत जानते हुए भी सामने वाले से प्रेम… इज्ज़त देना आसान तो नहीं। आसान तो नहीं कि कह देना ‘अमृता तो मुझे जरूर मिलती, भले ही उसे साहिर के घर से निकाल के लाना पड़ता।’ जबकि, इमरोज़ यह भी कहते हैं ‘कोई भी रिश्ता बांधने से नहीं बंधता।’ इमरोज़ पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है… बहुत कुछ कहा जा सकता है… लिखना और कहना अलग बात है… प्रेम में इमरोज़ हो जाना सबसे अलग बात है…
‘उसने जिस्म छोड़ा है मेरा साथ नहीं। वो अब भी मिलती हैं, कभी तारों की छांव में, कभी बादलों की छांव में, कभी किरणों की रोशनी में कभी ख्यालों के उजाले में, हम उसी तरह मिलकर चलते हैं चुपचाप, हमें चलते हुए देखकर फूल हमें बुला लेते हैं। हम फूलों के घेरे में बैठकर एक-दूसरे को अपना-अपना कलाम सुनाते हैं उसने जिस्म छोड़ा है साथ नहीं।’ – अमृता को याद करते हुए इमरोज़। आज हरिवंश राय बच्चन का भी जिक्र। उनके लिखे को भी लिखने की ज़िद… जो इमरोज़ ना कह सके वो हरिवंश राय बच्चन ने कह दिया।
“उजाड़ से लगा चुका उमीद मैं बहार की,
निदाघ से उमीद की बसंत के बयार की,
मरुस्थली मरीचिका सुधामयी मुझे लगी,
अंगार से लगा चुका उमीद मै तुषार की,
कहां मनुष्य है जिसे न भूल शूल-सी गड़ी?
इसीलिए खड़ा रहा कि भूल तुम सुधार लो।
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो,
पुकार कर दुलार लो, दुलार कर सुधार लो।”
– हरिवंशराय बच्चन
इमरोज़ मतलब आज का दिन… आज का दिन इमरोज़ के लिए। इमरोज़ के बहाने इश्क़ को महसूसने का दिन। उस इमरोज़ को जिन्होंने दुनिया को दिखाया कि इश्क़ दो जिस्मों से मिलकर पूरा नहीं होता है। इश्क़ खुद को खुद में खोकर खुद का पाने का सबसे पवित्र जरिया है। इमरोज़ ने उसी लिहाज की ज़िंदगी जी। उसी शिद्दत से इश्क़ को जी लिया… जिसे जीने का दावा तो बहुत करते हैं पर एकसाथ आगे बढ़ते कुछ कदमों के साथ ही अधिकांश दावे भरभरा कर गिर जाते हैं… इश्क़ में इमरोज़ होना आसान नहीं है… नामुमकिन भी नहीं… कोशिश कीजिए… इमरोज़ तस्वीरों के जरिए मंज़िल का पता बताते मिल जाएंगे। इमरोज़… एक पेंटर… एक आशिक… एक बेहतरीन शख्स… जिसे अपनी मोहब्बत पर भरोसा था…
कहां गयी? अमृता कहीं नहीं गई है?
वह है… मेरी रूह में कैद है। मैं ज़िंदा हूं। मैं सांस ले रहा हूं। मतलब अमृता यहीं है। हर समय मेरे साथ। उसने तो अगले जनम में भी मिलने का वादा किया है-
‘मैं तुझे फिर मिलूंगी, कहां कैसे पता नहीं,
शायद तेरे कल्पनाओं की प्रेरणा बन,
तेरे कैनवास पर उतरुंगी या तेरे कैनवास पर,
एक रहस्यमयी लकीर बन, ख़ामोश तुझे देखती रहूंगी।’
(यह लेख पत्रकार अभिषेक मिश्रा ने लिखा है, जिसे हमने उनके फेसबुक पोस्ट से लिया है)